रविवार

सोनागाछी

बंगाल ही नहीं

भारत भर के कारीगरों ने

इस बार नहीं गढ़ीं

मिट्टी से मूर्तियां

सोनागाछी ही नहीं भारत भर की

उन बस्तियों से निकालकर

बाहर लाए वे वेश्याओं को

उन्होंने रखा इस बात का ़ख्याल

उनमें से कोई बूढ़ी-पुरानी

दर्द से कराहती, खांसती-मरती

नहीं छूटे उस अंधेरे में भीतर के

कारीगरों ने इस बार उन सबका

किया ठीक वैसा ही श्रंगार जैसा

करते आए वे मूर्तियों का अब तक

और उन्हें बिठाया जगमगाते

उन मंडपों में ले जाकर, आख़िर

उन्हें हमने ही तो गढ़ा अब तक

लगातार हमारा होना झेलती

कोई देवी नहीं थी इससे पहले

हमारे पास, इस बार उन्होंने

गढ़ी दसवी देवी जिसका

नाम पड़ा देवी सोनागाछी

प्रेम कथा,


प्रेम के इस वसंती मौसम में
कोई लिख रहा है प्रेम कथा।

गुनगुनी धूप जैसे गुजरती है देह के आरपार
बहती है संबंधों की एक उन्मुक्त नदी,
जो शब्दों की परिधि नहीं मानती
मौन-सा कुछ-कुछ पनपता है
देह नहीं, आत्मा तक उतर जाता है कुछ।

अंजलि-भर सुख सभी चाहते हैं
उदासियों में भी छिपा होता है
स्मृतियों का सुख,
हवा में उड़ कर आई हंसी
गंध का कटोरा भर कर लाती है
नीले आसमान से टपकता है
एहसास का अमृत
बावरा मन कभी जीता है कभी मरता है।

प्रेम की राह होती है सपनों सरीखी
और हर कोई
सपनों को सजोकर रखना चाहता है,
थके हुए सपनों को
भावनाओं की परी
प्रेमानुभूति की लोरी सुनाती है।

प्रेम के इस वसंती मौसम में
कोई लिख रहा है प्रेम कथा,
जैसे मंदिर की देहरी पर
जल रहा हो एक मौन दीपक!