शनिवार

अपना गाँव-समाज

बड़े चाव से बतियाता था
अपना गाँव-समाज
छोड़ दिया है चौपालों ने
मिलना-जुलना आज

बीन-बान लाता था लकड़ी
अपना दाऊ बागों से
धर अलाव पर आँच दिखाता
सबै बुलाता रागों से

सब आते निज गाथा गाते
इक दूजे पर नाज़

नैहर से जब आते मामा
सब दौड़े-दौड़े आते
फूले नहीं समाते मिलकर
घण्टों-घण्टों बतियाते

भेंटें होतीं, हँसना होता
खुलते थे कुछ राज

जब जाता था घर से कोई
पग पीछे-पीछे चलते
गाँव किनारे तक सब आते
थे अपनी आँखे मलते

डूब गया है किस पोखर में
गाँवों का वह साज




अवनीश सिंह चौहान

अपनी धुन में रहता हूँ

अपनी धुन में रहता हूँ, मैं भी तेरे जैसा हूँ

ओ पिछली रुत के साथी, अब के बरस मैं तन्हा हूँ

तेरी गली में सारा दिन, दुख के कंकर चुनता हूँ

मुझ से आँख मिलाये कौन, मैं तेरा आईना हूँ

मेरा दिया जलाये कौन, मैं तेरा ख़ाली कमरा हूँ

तू जीवन की भरी गली, मैं जंगल का रस्ता हूँ

अपनी लहर है अपना रोग, दरिया हूँ और प्यासा हूँ

आती रुत मुझे रोयेगी, जाती रुत का झोंका हूँ


नासिर काज़मी