मंगलवार

मैडम के बच्चे और हरिजन का हरिया

मरियल सी औरत हाथ में गन्दा सा थैला लिए और सर पर छोटी सी गठरी रखे तपती धुप में नीची गरदन किये चुप चाप चली जा रही थी | उसे पता नहीं किस और किस तरफ जिंदगी ले जा रही थी | अपने अतीत को याद करते हुए धीरे धीरे सड़क को मापती हुई बीच में जा पहुची , अचानक जोर के होर्न ने उसकी नींद को तोड़ा तो उसने पीछे मुड कर देखा |
कार का ड्राईवर पता नहीं क्या क्या अनाप सनाप बक रहा था | औरत देख कर सड़क के किनारे हो गयी | धीरे धीरे कार आगे बढ़ गयी | कुछ दूर जा कर कार रुक गयी और फिर धीरे धीरे उल्टी वापिस आने लगी | देख कर एक बार तो बुढी औरत सकपकाई पर फिर कुछ सोच कर सीधी चल दी | कार के पास ज़ैसे हे पहुचे पिछले गेट का सीसा नीचे हुआ और आवाज आई "मैडम आप ?"
बूढी औरत ने देखा तो हरिहरण दिखाई दिया | छोटी सी मुस्कराहट आ कर वापिस चली गयी | गेट खोल कर हरिहरण ने अंदर आने के लिए बोला | सकपकाई सी अंदर बैठ कर उस हरिजनों के हरिया को सोचने लगी जिसे वो अपने बच्चों के चाय के बरतन धोने के लिए क्लास से उठा कर भेज देती थी | आज उसी हरिया से वह चाह कर भी नजर नहीं मिला पा रही है |
कार के फर्श को देखती हुई गुमशुम सोच रही थी कि ये मेरे कर्मो का फल मुझे मिल रहा है या मेरे बच्चों की हिमायत का फल |