सोमवार

मेरे घर का बोलता पुस्तकालय...

किताबे.. किताबे ..किताबे और किताबे
हर  जगह बस किताबे हे दिखाई दे रही है | बिस्तर पर, अलमारी में, मेज पर, दराज में और तो और सूटकेस व बॉक्स में भी | कितना अच्छा लगता है जब चारों तरफ किताबे ही किताबे हो | वो भी अच्छी व सुरक्षित स्थिती में  | किताबे भी खुश, देखने वाले भी खुश  और पढ़ने वाले ......ओह क्षमा किजीये वो तो है ही नहीं ....

मैं किसी और  की बात नहीं कर रहा हूँ इतना निखोता कौन हो सकता है  ? मैं मेरी और मेरी किताबो की बात कर रहा हू | ऐसी कोई पढाई की लाइन नहीं है जिसकी मेरे पास किताब न हो | और ऐसी कोई पढाई की लाइन नहीं है हो मैने ढंग से पढ़ी हो | मुझे किताबे खरीदने का बस शोक ही है पढ़ने का नही | पता नहीं क्यों ? आज तक मुझे ही समझ नहीं आया | मेरे पास बहुत सी किताबे है पर शायद ही कोई उनमें से पूरी पढ़ी हो , बस २-३ पेज बस , फिर आखें बंद और  निद्रा शुरू |

एक कदर मेरे मन में ख्याल आया की कैसा होता यदि ये सभी किताबे आदमी-ओरतें होती ? सभी किताबे आपस में बात करती, मुझ से बात करती, उनकी बात मुझे सुनाती और मेरी बातें वो भी सुनती , मुझ से उनमें लिखी बातों पर वाद विवाद करती , कभी मैं हारता कभी वो हारते ...वाह कितना मजा आता | न कभी अकेलापन मह्सुश होता और न ही कभी बोर हो कर नींद आती | कभी घर पहुचता तो कोई किताब अच्छा सा गीत या गीतांजली सुनाती | खाना बनाने के लिए कोई व्यंजन की विधीयां बताती तो कोई शेरो शायरी करती | रात को माँ की लोरियाँ माँ की डायरी से सुनाती ......
अरे यार | माँ की डायरी से माँ की याद आ गयी | चलता हू फिर मिलेगे इन बोलती किताबों के लिए .........